आज 28 मई , वो दिन है जब इतिहास ने एक ऐसा बेटा भारत को दिया था, जो सिर्फ आज़ादी नहीं चाहता था, बल्कि अपने देश की आत्मा को पहचान भी दिलाना चाहता था। विनायक दामोदर सावरकर, जिन्हें दुनिया आज वीर सावरकर के नाम से जानती है, सिर्फ एक क्रांतिकारी नहीं थे , वे एक विचार थे, एक आंदोलन थे, और कई लोगों के लिए एक आदर्श भी थे।

भगूर से शुरू हुई एक बगावती कहानी
सावरकर का जन्म 1883 में महाराष्ट्र के एक छोटे से गांव भगूर में हुआ था। मां-बाप को जल्दी खो देने के बावजूद, उनके भीतर देश के लिए कुछ कर गुजरने की आग बचपन से थी। जब बाकी बच्चे किताबों में खोए रहते थे, सावरकर आज़ादी के सपने बुन रहे थे। युवावस्था में वे इंग्लैंड पढ़ाई के लिए गए, लेकिन उनका असली मकसद था देश को ब्रिटिश जंजीरों से मुक्त कराना। लंदन की लाइब्रेरी में उन्होंने 1857 की क्रांति को आज़ादी की पहली लड़ाई बताने वाली किताब ‘The Indian War of Independence, 1857’ लिखी, जो ब्रिटिश सत्ता के लिए एक चुनौती बन गई।
सेल्युलर जेल की काल कोठरी से उपजा ‘हिंदुत्व’
ब्रिटिश सरकार ने उन्हें गिरफ्तार कर अंडमान की कुख्यात सेल्युलर जेल भेज दिया, जहाँ उन्होंने अकल्पनीय यातनाएं झेली। लेकिन वे टूटे नहीं। वहीं उन्होंने ‘हिंदुत्व’ का दर्शन रचा। एक ऐसा विचार जो भारत की सांस्कृतिक पहचान को हिंदू दृष्टिकोण से परिभाषित करता है। उनका मानना था कि भारत सिर्फ एक भूगोल नहीं, एक आस्था है, एक संस्कार है।
उनके अनुसार हिंदू वह है जो भारत को अपनी पितृभूमि (Fatherland) और पुण्यभूमि (Holy Land) मानता हो।1924 में रिहा होने के बाद सावरकर ने सामाजिक सुधारों की ओर रुख किया। जातिवाद के खिलाफ उन्होंने खुलकर आवाज़ उठाई और हिंदू समाज को एकजुट करने की कोशिश की। वे सिर्फ आज़ादी के नायक नहीं थे, समाज की आत्मा को भी ठीक करना चाहते थे।

राजनीति में कदम और विवाद
सावरकर 1937 में हिंदू महासभा के अध्यक्ष बने और अगले सात साल तक हिंदू राष्ट्रवाद के विचार को धार दी। लेकिन 1948 में महात्मा गांधी की हत्या के बाद वे विवादों में आ गए। हालांकि सबूतों के अभाव में वे अदालत से बरी हो गए, मगर आलोचनाओं का साया कभी उनका पीछा नहीं छोड़ सका। 1966 में जब सावरकर ने दुनिया को अलविदा कहा, तब भी उनके विचारों की गूंज थमी नहीं थी। आज भी जब भारत में राष्ट्रवाद, धर्म और संस्कृति पर बहस होती है, तो सावरकर का नाम ज़रूर उछलता है।
अंत में…
“जो देश अपने वीरों और शहीदों को नहीं पहचानता, वह धीरे-धीरे नष्ट हो जाता है ” – वीर सावरकर